Friday, June 5, 2009

अद्वैत स्वरुप सतविवेक मिशन के बारे में


अद्वैत स्वरुप सत् विवेक मिशन की गुरु परम्परा में ऐसे महापुरुष हैं जिनके सानिध्य से ही भक्त जनों का कल्याण हुआ है। यह परम्परा उन जिज्ञासुयों के लिए है जो परम तत्त्व के बारे में जानना चाहते है तथा ब्रह्म ज्ञान को समझने की चेष्ठा रखते हैं। सन् १९७३ के अप्रैल में हमारे गुरु महाराज श्री श्री १००८ परमहंस स्वामी रामानंद सत्यार्थी जी महाराज ने इस विद्या का उपदेश दे कर जनकल्याण करने का भार हमारे गुरु श्री सत् विवेक जी को सौपा था। हमारे गुरु प्रति क्षण इसी कार्य को पूरण करने में कार्यशील रहते हैं। इस साईट पर हम उनके अनुभूतिपरक उपदेशो की सम्पूर्ण व्याख्या नही कर सकते, पर आशा जरूर करते हैं की इसके माध्यम से इस परम्परा की चमक हर जिज्ञासु तक पहुँचेगी।

गुरु परम्परा


दादा गुरु जी महाराज

श्री श्री १००८ परमहंस अद्वैतानन्द जी महाराज
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श्री गुरु महाराज जी
श्री श्री 1008 परमहंस स्वामी स्वरूपनन्द जी महाराज परिव्राजका चर्या
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! गुरु महाराज जी
श्री श्री १००८ परमहंस स्वामी रामानंद सत्यार्थी जी महाराज
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गुरु जी

श्री सतविवेक जी महाराज

दादा गुरु जी महाराज

परम वैरागी, व्यावहारिक वेदान्त ज्ञान के अधिष्ठाता तथा वेद वेदांग, शास्त्र उपनिषद के मर्मज्ञ एवं ब्रहाम्विद्या को नया स्वरुप प्रदान करने परमहंस दयाल जी महाराज ने अधिकतर अपने जीवन काल का समय जयपुर में महाराजा रामसिंह जी के कोतवाल श्री रामचंद्र जी की कोठी पर रहते हुए इस ब्रहम विद्या की दिव्य ज्योति को प्रकाशित किया। अपने जीवन काल में आपने जो सत्संग उपदेश दिए उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्रकाशित करने से मना कर दिया क्योंकि संत को उसकी महिमा ही हानि पहुँचाती है।

आप महारानी विक्टोरिया के शाही फ़कीर थे इसलिए उन्हें शिकागो सम्मलेन का निमंत्रण आया था उसी पर स्वामी विवेकानंद जी उनके प्रतिनिधि के रूप में शिकागो सम्मलेन में भाग लेने गए थे। इसकी व्यवस्था महाराजा खेचरी ने की थी जो परमहंस दयाल जी महाराज के भक्त थे। स्वामी विवेकानंद जी ने उस समय बाबा जी के नाम पर दो अद्वैत आश्रम जिसे बाबा जी ने बाद में मन कर दिया और कहा की अपने गुरु के नाम पर करो। तब आर के मिशन की की स्थापना हुई। भारत में दो आश्रम पिथौरागड़ तथा अद्वैत आश्रम कलकत्ता आज भी उसी रूप में विद्यमान हैं।

जीवन का अंधिकाश समय जयपुर में गुजारने के पश्चात् आप सीमाप्रांत के जिला बिन्नू के गाँव टेरी गए जहाँ पर इनके सत्संग में श्री गुरु महाराज अपनी बाल्यावस्था में अपनी माता जी के साथ पधारे तो आपने सभी उपस्थित समुदाय को उनके स्वागत के लिए यह कह कर खड़ा कर दिया की परमहंस जी पधार रहे हैं उनका स्वागत करो। इसके पश्चात श्री गुरु महाराज जी को अपनी शरण में ले कर नगला पड़ी आगरा में बिठाया तथा निराहार रखकर बारह वर्ष की अखंड समाधी अवस्था प्रदान कर के उन्हें पूर्ण कर दिया, फिर अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी नियुक्त करके जनकल्याण हेतु तैयार कर दिया।

मेरी इस गुरु परम्परा में अदि सदगुरुदेव जिनकी कृपा का प्रसाद हमारी दूसरी बादशाही को प्राप्त हुआ जिससे वे पूर्ण ब्रह्मपद को प्राप्त हुए। स्वामी विवेकानंद जी ने भी इनकी कृपा का प्रसाद पाया और इनके ही दिए हुए ज्ञान का प्रचार कर विदेशों तक में प्रसिद्ध पाई।

आदि गुरुदेव परमहंस दयाल जी महाराज

श्री श्री १००८ परमहंस अद्वैतानान्दा जी महाराज



( उपरोक्त अंश गुरु श्री सतविवेक जी महाराज की 'गीता की मीमांसा' नामक पुस्तक से लिया गया है।)

श्री गुरु महाराज जी

परमपूज्य श्री गुरु महाराज की लीलाएं अनंत हैं जो उन्होंने पृथ्वी पर अपने अविर्भाव से ही प्रारम्भ कर दी थी एवं १८८४ से १९३६ तक शरीर के रहते प्रत्यक्ष रूप से करते रहे जिसका संकलन श्री गुरु महाराज के साथ रहने वालों ने जो प्रत्यक्षदर्शी थे उन्होंने उसमे से कुछ संकलित करके लोगों के परम कल्याणार्थ 'स्वरुप लीला' नाम की पुस्तक के मध्यम से प्रकाशित की है जिससे उनके ब्रह्मस्वरूप होने का दिग्दर्शन होता है। अब भी उनकी लीलाएं परोक्ष रूप से होती है जिनको श्रद्धालु भक्त स्वयं अनुभव करते हैं।

गुरु महाराज जी को इस ब्रह्मविद्या का उपदेश करने की सेवा के लिए उन्हें यह आशीर्वाद दिया था कि "पंडित जी आपके शिष्य ही नहीं वरन आपके कुत्तों को भी रोटी कपड़े की कमी नहीं रहेगी। संतमत में धन का संचय वर्जित है परन्तु श्रद्धालु भक्तों के समस्त कार्य प्रकृति स्वयं करेगी। "

यद्यपि वाणी उनकी महिमा तथा लीलाओं का वर्णन करने में समर्थ नहीं है फिर भी श्रद्धालुओं तथा जिज्ञासुओं के मार्गदर्शन हेतु जो महापुरुषों से सुना तथा पढ़ा वही प्रस्तुत कर रहा हूँ।

इस ब्रहमविद्या के साथ-साथ भक्तों के सांसारिक कल्याण को करने हेतु श्री लक्ष्मी जी सदैव उनकी सेवा में उपस्थित रहती थी। सदैव अखंड लंगर चलने के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनके दरबार की तलाशी भी ली तथा सी. आई. डी. जाचे भी की परन्तु जाँच को करने वाले पुरूष अंततः उनके शिष्य बन गए।

श्री गुरु महाराज जी अब भी परोक्ष रूप में अपनी समाधी पर ही विराजमान रहते हैं तथा भक्तों के हृदय की पवित्रता के अनुसार उनका कल्याण सदैव करते रहते हैं तथा उनके अंतःकरण में विराजमान हो कर उनका परम कल्याण भी कर देते हैं।

मेरे सदगुरुदेव ने जिस तत्वदर्शी महापुरुष से यह ज्ञान प्राप्त करके तत्वदर्शी बने उन सर्व्यव्यापक, सर्वज्ञ, सर्व शक्तिमान परम सदगुरू का चित्र भी दिया जा रहा है जो इस परम्परा की दूसरी बादशाही कहलाती है।

संतों की नगली श्री गुरु मन्दिर नंगले आजड़ सकौती जिला मेरठ में विराजमान


श्री नगली निवासी भगवान

श्री श्री १००८ परमहंस स्वामी स्वरूपानंद जी महाराज परिव्राजका चर्या


( उपरोक्त अंश गुरु श्री सतविवेक जी महाराज की 'गीता की मीमांसा' नामक पुस्तक से लिया गया है।)

गुरु महाराज जी

महापुरुष अपने जन्म से नहीं वर्ण अपने कर्म से जाने जाते हैं। गुरु महाराज जी ने अपना जीवन यद्यपि गृहस्थ के रूप में आरम्भ किया था परन्तु अपनी शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत जब अपने घर वापस आए तब उन्होंने दुर्गा पाठ शुरू किया इस पर गुरु महाराज जी के पिता श्री ने पुछा संसार की कोई वास्तु प्राप्त करने की इच्छा से इस पाठ को शुरू किया है तो उन्होंने जवाब दिया कि नहीं, तब पिता श्री ने कहा कि फिर अपने कल्याण हेतु ब्रह्म उपासना करो तब गुरु महाराज जी ने श्रीमद् भगवद गीता का पाठ आरम्भ किया। यह साक्षात् ब्रहम विद्या है जो परमगति को दिलाने वाला है। श्री भगवन ने इसकीपुष्टि अध्याय १८ के श्लोक ७० में की है।

गुरु महाराज जी ने शास्त्रों तथा उपनिषदों में जो ब्रह्म विद्या को पढ़ा था उसे प्रत्यक्ष दिखने वाले महापुरुष की खोज में काफी दिनों तक भ्रमण करते रहे। काफी दिनों पश्चात् योगेश्वर भगवन श्री कृष्ण इस भगवद्गीता के पाठ से प्रसन्ना होकर बेसुधी की अवस्था में आए और परमहंस श्री श्री १००८ स्वामी स्वरूपनान्दा जी महाराज के पास ब्रहाम्विद्य का उपदेश प्राप्त करने का निर्देश दिया।

प्रातः काल ही गुरु महाराज जी चल, श्री गुरु महाराज जी के दरबार में पहुंचे उस समय सत्संग चल रहा था उसी में जा कर बैठ गए। तत्पश्चात गृहस्थियों के चले जाने के बाद सन्यासियों की समीक्षा करते समय भी इनके बैठे रहने पर सन्यासियों ने आपत्ति की तब श्री गुरु महाराज जी ने कहा कई वर्षों से ये सदगुरू की खोज में लगे हुए थे। इन्हे आज यहाँ का पता बताये जाने पर आए हैं। फिर उनकी जेब में रखे सातों प्रशनों का उत्तर बिना पूछे दे दिया तब उनके शिष्य बन कर अखंड साधना की तथा १९६४ से १९८६ तक सन्यासी रह कर तत्त्वज्ञान का उपदेश देते हुए सदगुरु की सेवा में संलग्न रहे। यह ज्ञान पुस्तकों से प्राप्त न हो कर तत्वदर्शी महापुरुषों से प्राप्त होता है इसलिए गुरु परम्परा में गुरु महाराज जी का चित्र दिया जा रहा है जिनकी कृपा का यह प्रसाद है।


परमपूज्य गुरु महाराज जी

श्री श्री १००८ परमहंस स्वामी रामानंद सत्यार्थी जी महाराज



( उपरोक्त अंश गुरु श्री सतविवेक जी महाराज की 'गीता की मीमांसा' नामक पुस्तक से लिया गया है।)

गुरु जी


श्री सतविवेक जी महाराज

बहूनाम, जन्मनाम, अन्ते, ज्ञानवान, माम, प्रपद्यते,
वासुदेवः, सर्वम, इति, सः, महात्मा, सुदुर्लभः ॥

( श्रीमद् भगवत् गीता अध्याय ७ श्लोक१९ )

संतो की नंगली


संतों की नगली श्री गुरु मन्दिर में हमारे श्री गुरु महाराज जी प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान हैं इसलिए नगली इस परम्परा से जुड़े हर एक व्यक्ति के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा प्रिय स्थान है।


पूरा पता है: संतों की नगली श्री गुरु मन्दिर नंगले आजड़ सकौती जिला मेरठ। यह जगह मेरठ से २१ किलोमीटर दूर, मेरठ हरिद्वार रोड पर स्थित है।


आप के लिए यहाँ नगली की एक झलक दी जा रही है।




मन्दिर में श्री गुरु महाराज जी

मन्दिर का शिखर

मन्दिर में स्थित अमृत स्त्रोत जिसमे से ६९ तीर्थो का जल आता है।

मन्दिर का मुख्य द्वार